दादी का संदूक !
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स्याही-कलम-दवात से, सजने थे जो हाथ !
कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहें फुटपाथ !!
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बैठे-बैठे जब कभी, आता बचपन याद !
मन चंचल करने लगे, परियों से संवाद !!
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मुझको भाते आज भी, बचपन के वो गीत !
लोरी गाती मात की, अजब-निराली प्रीत !!
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मूक हुई किलकारियां, चुप बच्चों की रेल !
गूगल में अब खो गए,बचपन के सब खेल !!
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छीन लिए हैं फ़ोन ने, बचपन के सब चाव !
नाव चलाते रेत में, उड़ती नभ में रेल !!
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यादों में बसता अभी, बचपन का वो गाँव !
कच्चे घर का आँगना, और नीम की छाँव !!
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लौटा बरसों बाद मैं , उस बचपन के गाँव !
नहीं बची थी अब जहां, बूढी पीपल छाँव !!
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नहीं रही मैदान में, बच्चों की वो भीड़ !
लगे गेम आकाश से, फ़ोन बने हैं नीड़ !!
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धूल आजकल चाटता, दादी का संदूक !
बच्चों को अच्छी लगे,अब घर में बन्दूक !!
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✍ - डॉo सत्यवान सौरभ,
रिसर्च स्कॉलर,कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (13-01-2021) को "उत्तरायणी-लोहड़ी, देती है सन्देश" (चर्चा अंक-3945) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हर्षोंल्लास के पर्व लोहड़ी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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welcome sir
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर दोहे
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंसुंदर दोहे
जवाब देंहटाएंआप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।
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